Friday 11 May 2012


मन के खेल निराले मेरे भैय्या !

डा. अरविन्द कुमार सिंह

नीत्शे से किसी ने एक बार पूछा - तुम हमेशा हसते रहते हो, प्रसन्न रहते हो। नीत्शे ने कहा - ''अगर तुमने पूछ ही लिया है तो मै असलियत भी बता दू। मै इसलिये हसता रहता हू कि कही रोने न लगू। आदमी विलकुल वैसा नही है जैसा दिखइ पडता है। भीतर कुछ और है बाहर कुछ और है। इस सम्पूर्ण प्रकि्या को संचालित कर रहा है व्यकित का मन। यहा यह सूत्र समझ लेने जैसा है कि भय के होते हुये व्यकित, मन का साक्षात्कार नही कर सकता। इसलिये भय को छोडकर साहस पूर्वक हमे स्वंय को देखने की तैयारी करनी होगी।

पत्नी रो रही थी, विलख रही थी और पति को जगाये जा रही थी,'' उठो ! अपना पप्पू अब दुनिया में नही रहा। आखिरकार पति ने आखे खोली, र्निविकार रूप से वह अपनी पत्नी का चेहरा निहारता रहा। पत्नी बोली, '' पप्पू अब दुनिया में नही रहा, तुम रोते क्यो नही ? पति के चेहरे पर अब भी आश्चर्य का भाव था। उसने कहा ,'' किसके लिये रोऊ? सपना देख रहा था, मेरे बारह पुत्र थ वो मर गये, उनके लिये रोऊ? - सोकर उठा तुमने बताया अपना पप्पू मर गया उसके लिये रोऊ? अगर ये सच है तो वो सपना क्या था? अगर सपना सच था तो ये क्या है? मै सो गया तो सपना कौन देख रहा था? मैं बडी ऊलझन में हू। 

वे कौन है? विचार जिसकी खुराक है।अतीत में विचरण करना जिसका शगल है और भविष्य के सपने बुनना जिसकी आदत है।उससे मात्र मृत्यु के उपरान्त ही पीछा छुडाया जा सकता है या पीछा छुट सकता है। हा अध्यात्मीक व्यकित ध्यान के माध्यम से उसे नियन्त्रीत कर सकता है। शब्दो के माध्यम से यदि उसे कोइ नाम दिया जाय तो उसे मन कहा जा सकता है। 

व्यकित की पाच स्वर्णेदि्य और पाच कर्मेदि्य होती है। इसे नियन्त्रीत करने वाला आत्मवान कहलाता है। सच्चे अर्थो में वही अध्यात्मीक पुरूष है।विडम्बना तो ये है, जब इन इन्द्रीयो की कमान आत्मा के हाथ में होती है तो व्यकित सदमार्ग पर अग्रसर होता है और जब मन हुकूमत करता है तब व्यकित दुखी और गलत मार्ग पर अग्रसर होता है। यहा यह समझ लेने जैसा है कि मन हमेशा द्वैत में होता है जबकि आत्मा एकल और सत्य चिन्तन के साथ होता है।

मन की पकड दसो इन्द्रीयों  पर ढीली करने के लिये आवश्यक है कि हम इसकी कार्यप्रणाली को समझ ले। विचार मन की खुराक है। विचार की उत्पति वाक्य विन्यास से है और वाक्य विन्यास भाषा की विषय वस्तु है।भाषा का ज्ञान हमारे विचार को संचालित कर देता है।विचार संचालित होते ही हमारा मन कार्यरत हो जाता है। वो अतीत और भविष्य में चला जाता है। मन की खसियत है वो या तो रहेगा अतीत में या फिर रहेगा भविष्य में। वर्तमान में उसकी उपसिथती, उसकी मृत्यु है।साधना का सम्पूर्ण सूत्र वर्तमान में होने पर टिका है। यही कारण है, ध्यान की ज्यादातर विधिया स्वास पर आधरित है, क्येकि स्वास के अतीत या भविश्य में होने की कोर्इ व्यवस्था नही है।वो जब भी होगी वर्तमान में होगी। 

बडी दिलचस्प बात है। हमे डाक्टर प्रमाण देता है कि हम पूर्णत: स्वस्थ है, क्या यह प्रमाण पत्र सच के करीब है? आर्इये देखते है - र्इमानदारी से दस मिनट के लिये आपके मन में जो भी विचार आता है, उसे आप वैसा ही लिख ले। लिखने के बाद उसे किसी अन्य व्यकित को पढने को दे। विश्वास माने उस व्यकित की प्रतिकि्रया आपके प्रति चौकाने वाली होगी। उस व्यकित की तो बात आप छोड दे  आप खुद ही आश्चर्य से भर जायेगे कि मेरे मन के भीतर यह क्या चल रहा है? मै स्वस्थ हू या विक्षिपत हू? हम दस मिनट के लिये भी मन के भीतर झाक कर नही देखते कि वहा क्या चल रहा है। 

हो सकता है हम इसलिये न झाकते हो कि हमे बहुत गहरे में इस बात का पता है कि वहा क्या चल रहा है। उपर से हम एक दूसरे से अच्छी बातचीत करके अपना काम चला लेते है, भीतर विचारो की आग जलती है, उपर से हम शात और स्वस्थ मालूम होते है। भीतर सब ठीक नही है। हम अस्वस्थ एवं विक्षिपत है।मुस्कुराहटो के पीछे ढेर सारे आसुओं का जखीरा है।

नीत्शे से किसी ने एक बार पूछा - तुम हमेशा हसते रहते हो, प्रसन्न रहते हो। नीत्शे ने कहा - ''अगर तुमने पूछ ही लिया है तो मै असलियत भी बता दू। मै इसलिये हसता रहता हू कि कही रोने न लगू। आदमी विलकुल वैसा नही है जैसा दिखार्इ पडता है। भीतर कुछ और है बाहर कुछ और है। इस सम्पूर्ण प्रकि्या को संचालित कर रहा है व्यकित का मन। यहा यह सूत्र समझ लेने जैसा है कि भय के होते हुये व्यकित, मन का साक्षात्कार नही कर सकता। इसलिये भय को छोडकर साहस पूर्वक हमे स्वंय को देखने की तैयारी करनी होगी।

क्या यह दिलचस्प बात नही कि हम आत्मा पाने के लिये उत्सुक होते है, परमात्मा के दर्शन के लिये भी उत्सुक होते है पर अपने सीधे और सच्चे दर्शन का साहस नही जुटा पाते है। याद रखे पहली सच्चाइ हमारा मन है जो विचारो के सहारे अतीत और भविष्य में भटकता रहता है। उसे ही देखना और जानना होगा तथा पहचानना होगा। आखिर कैसे? आइये थोडा इस पर विचार करे -

मन के कुछ नियम है। जिस चीज को हम रोकना चाहेगे, हटाना चाहेगे, बचाना चाहेगे वही चीच हमारे चित्त का केन्द्र बन जायेगी। हमारा आर्कषण हो जायेगी। उस आर्कषण के इर्द गिर्द ही मन चक्कर काटने लगेगा। हमारी बातो पर यकिन नही? आप कोशिश कर के देख लिजिये। 

हमे यह ख्याल में रखना होगा कि मन में क्या आये और क्या न आये इसका कोइ आग्रह लेने की जरूरत नही है। उसे सिर्फ देखना है, हमारी कोइ शर्त नही , कोइ बाध्यता नही। इसे इस रूप में समझे, जब आप कोइ फिल्म देखने जाते है और उससे जुडते है तो आपके  सारे इमोशन्स कार्य करने लगते है। आप रोते है, आप हसते है और आप फिल्म देखकर डरते भी है। पर ज्यो ही आप को ख्याल आता है कि आप फिल्म देख रहे है तो आप सारे इमोशन्स से बाहर आ जाते है। कुछ ऐसा ही ख्याल मन के साथ रखे ।

ध्यान हमे शब्द से परे ले जाते है। हमे वर्तमान में लाकर खडा कर देते है। याद रखे शब्द के आभाव में मन की कोइ सत्ता नही और आपके वर्तमान मे होते ही मन गायब हो जायेगा।क्यो कि उसकी उपसिथती के लिये अतीत और भविष्य आवश्यक है। मन को अतीत और भविष्य में जाने के लिये विचारो की खुराक आवश्यक है। इस लिये इस सूत्र को हमेशा ध्यान में रखे निषेध आर्कषण है,  इन्कार आमन्त्रण है। अत: मन में क्या आये और क्या न आये इसका कोइ आग्रह लेने की जरूरत नही है।

अपनी बात समाप्त करने के पूर्व कुछ बातो को संज्ञान मे लेने का आग्रह करूगा। यदि हमे मन के खेल को समझना है और उसके दुष्चक्र से बाहर निकलना है तो हमे याद रखना होगा -
  • भय को छोडकर स्वंय को हमारी देखने की तैयारी हो।

  • मन पर कोइ प्रतिबन्ध न लगाये।

  • मन के भीतर जो भी विचार उठे उसके प्रति हम तटस्थ भाव रखे।

यदि हमने ऐसा नही किया तो हो सकता है, चीनी दार्शनिक लाओत्से की तरह हमारी भी एक सुबह, कोर्इ उलझान लेकर, हमारे समक्ष उपसिथत हो - कहते है लाओत्से घर के बाहर उदास बैठा था।उसके पडोसी ने पूछा -'' तुम इतने उदास क्यो हो? मेरी उदासी का कारण कल रात देखा गया एक सपना है - लाओत्से ने जबाव दिया। ऐसा क्या था जो सपने ने तुम्हे इतना परेशान कर दिया, पडोसी ने पूछा? लाओत्से ने कहा - सुबह आख खुलते ही मै उलझन में पड गया हू।सपने में देखा मै एक तितली बन गया हू और बागीचे में फूलो पर मडरा रहा हू। आख खुलने पर सोच रहा हू। कही दिन में अब वो तितली तो नही सो गयी है और मै उसके सपने में आदमी तो नही बन गया हू।

मै समझ नही पा रहा हू मै तितली हू या आदमी?प्रश्नो का उत्तर प्रश्नो में ही छिपा है। जो समझ गया वो उलझन से पार और जो नही समझा वो दुख के सागर में गोते लगाता रहेगा। आपकी यात्रा विेवेक के  मार्ग पर अग्रसर हो , आप ध्यान को उपलब्द्ध हो, इसी शुभ के साथ, इस बार इतना ही।


सम्र्पक सूत्र -

सरस्वती सदन

एस 2215 के , सिकरौल 

भोजूबीर, वाराणसी - 221002

मेबाइल - 9450601903