Tuesday 20 September 2011

काशी के रामनगर की रामलीला


 काशी के लिए ये कहा जाता है कि सात वार और नौ त्यौहार अर्थात सप्ताह के दिनों से अधिक यहाँ उत्सव और आनंद मनाया जाता है | बल्कि हम यह कह सकते हैं कि काशीवाशियों को उत्सव मनाने का बहाना चाहिए | उसी परंपरा की कड़ी में काशी की रामलीला भी है | इन सभी रामलीलाओं में रामनगर की रामलीला विश्व- प्रशिद्ध , अद्भुत और अनूठी है | यों तो बरसों  से  इसके बारे में काफी कुछ सुनता  और पढ़ता आ रहा था ,पर दुर्भाग्य से इसे देखने का सौभाग्य नहीं मिला था | कल ही एक मित्र एवं छोटे भाई सरीखे अधिवक्ता के अमूल्य सहयोग से इसका साक्षी बनने का सुअवसर मिला | रामनगर वाराणसी शहर से लगभग १० किलोमीटर की दूरी पर गंगा के उसपार बसा है | भूतपूर्व काशीनरेश का निवास भी रामनगर किले में ही है | यह विशिष्ट रामलीला लगभग १५० वर्ष पूर्व वर्तमान  काशीनरेश के पूर्वजों द्वारा शुरू की गयी थी और आज भी उसी राजपरिवार के कुशल संरक्षण में इसका आयोजन एवं संचालन होता है | इस रामलीला में ख़ास बात यह है की इसमें जरा भी आधुनिकता नहीं है और इसका प्राचीन एवं मौलिक स्वरुप अभी भी विद्यमान है | पात्रों के चयन में भी विशेष सावधानी बरती जाती है | राम, लक्ष्मन, भरत, शत्रुघ्न और सीता का पात्र करने वाले कलाकारों का चयन संभ्रांत ब्राहमण परिवारों से होता है और बाकि के पात्र अपने जीवन में भी अपने वास्तविक नामों के स्थान पर इन्ही पात्रों के नाम से बुलाये जाते है जैसे जामवंत का पात्र निभाने वाले व्यक्ति का वास्तविक नाम कुछ भी हो पर उसका नाम जामवंत गुरु पड़ जाता है | ये पात्र अपने जीवन में भी शुद्ध और सात्विक आचरण करने लगते हैं |  यह रामलीला एक ही स्थान पर नहीं होती  बल्कि १२-१३ किलोमीटर के क्षेत्र में होती है क्योंकि अयोध्या, चित्रकूट, लंका आदि स्थान अलग-अलग  जगहों पर हैं | पूरी रामलीला सिर्फ पेट्रोमैक्स , मशाल और महताबी की रोशनी में होती है , संवाद भी बिना माइक के बोले जाते हैं , अर्थात आधुनिकता से कोसों दूर | इस रामलीला को देखने के  लिए दूर -दूर से साधू, सन्यासी, और विभिन्न समुदाय के लोग आते हैं | प्रतिदिन वाराणसी से सैकड़ों लोग इसे देखने पहुते हैं | ये लीलाप्रेमी अपने ख़ास एवं खांटी  बनारसी अंदाज़ में  लीला देखने पहुचते हैं अर्थात चौचक नहा- निपट कर , लकालक धोती -कुरता , दुपलिया टोपी पहनकर , माथे पर चन्दन टीका धारण कर , इतर लगा कर और भांग-ठंडाई छान कर | वाराणसी का यादव समुदाय आँखों में काजल लगा कर और हाथ में सेंगरा ( एक ख़ास प्रकार की लाठी जिसमे पीतल या चांदी की मूठ लगी होती है ) लेकर यहाँ पहुचता है | नित्य लीला देखने वालों को नेमी कहा जाता है और ये  नेमी लोग अपने साथ पीढ़ा या बोरा (बैठने के लिए ), टार्च(अँधेरे में रामायण पढने के लिए ) और  रामचरितमानस की पोथी लेकर लीला देखते हैं | यहाँ लीला के साथ ही रामायनियों द्वारा रामचरितमानस का वाचन भी साथ-साथ चलता है और नेमी लोग भी साथ में ही पाठ करते हैं | इस रामायण का गायन एक ख़ास शैली में किया जाता है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा और इस शैली को रामलैईला धुन कहा जाता है और इसमें दोहे की शुरुआत हे हा- हे हा के उच्चारण के साथ की जाती है | इस लीला को  देखने काशीनरेश का राजपरिवार भी साथ रहता है |

कल धनुषयज्ञ की लीला थी | व्यास जी के चुप रहो-चुप रहो सावधान  कहने पर पुरे जनसमुदाय में शांति छा गयी | फिर लीला शुरू हुई  जैसे ही श्री राम जी ने धनुष भंग  किया ठीक उसी समय सड़क के उस पार पी. ए. सी. के compound   में तोप का धमाका हुआ , शंख बजने लगे और चारों ओर श्री रामचंद्र की जय का उद्घोष हुआ | फिर परशुराम - लक्ष्मण का संवाद हुआ और अंततः महताबी की रोशनी में आरती के साथ लीला का समापन हुआ | इस लीला में नाट्य या ड्रामा बिलकुल भी नहीं है यह एक पूर्णरूप से आध्यात्मिक आयोजन है | आस्था से देखने पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है | आरती के बाद लोगों को साष्टांग दंडवत करते देख कर लगा की " where logic ends, Indian philosophy begins " | पर लगातार तेजी से बदलते बनारस, माल कल्चर के हावी होने और नयी पीढ़ी की अरुचि के कारण यह परंपरा कब तक बचेगी कुछ कहा नहीं जा सकता | हाल ही में यूनेस्को के  वर्ल्ड हेरिटेज साईट में इसे शामिल कराने का प्रयास चल रहा है ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए भी यह विरासत बची रहे |

हिंदी दिवस पर


हिंदी दिवस पर आप सभी हिंदी प्रेमी हिन्दुस्तानी और विदेशियों सभी को बधाई | इस शुभ अवसर पर हिंदी की दुर्गति पर भी कुछ शब्द कहना जरुरी है  | हिंदी आज अत्यंत उपेक्षित और पिछड़ी हुयी भाषा हो गयी है और इसका भी श्रेय हम हिंदीभाषियों को ही जाता है | हिंदी की उपेक्षा जितनी अंग्रेजों या अन्य विदेशियों ने नहीं की उतनी हम भारतीयों ने की है | इसका कारण हमारा आयातित भाषा अंग्रेजी के प्रति अगाध  प्रेम है | क्यूंकि आज़ादी के बाद ये हमारी भारी जिम्मेदारी बनती थी की हम हिंदी भाषा के  उत्थान  और उन्नयन  के लिए प्रयास  करते  पर इसके  बदले  हमने  अंग्रेजी भाषा के द्वारा  ही विकास  का रास्ता  खोजना  शुरू  कर  दिया और बस यहीं से हिंदी की भी दुर्गति का मार्ग प्रशस्त हो गया |हमने भारत के संविधान में इसे राजभाषा की मान्यता तो दी पर राजनीतिज्ञों  के कारण  यह अभी भी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई,  हिंदी का प्रयोग पिछड़ेपन का द्योतक बन गया | भारत का नवप्रगातिशील समाज हिंदी का प्रयोग करने से कतराने लगा | भारत के उभरते हुए तथाकथित नवधनिक  वर्ग ने अपने को अत्याधुनिक दिखाने के चक्कर में अंग्रेजी का धड़ल्ले से प्रयोग शुरू कर दिया | भारत के निम्न मध्यवर्ग ने जो उच्च वर्ग का  अन्धानुकरण करता है , हिंदी को हिकारत से देखते हुए अपने बच्चो से अंग्रेज बनने के अपेक्षा करने लगा | रही- सही कसर सिनेमा और टीवी ने पूरी कर दी क्योंकि इस से पश्चिम की वो आयातित सभ्यता भी भारत आई जिसमे कडवाहट भरी मिठास थी |  इस कारण ना केवल हमारी भाषा भ्रष्ट हुयी बल्कि हमारी सदियों पुरानी सभ्यता  और संस्कृति का भी सत्यानाश हो गया | हिंदी में अंग्रेजी के इस समावेश ने हिंदी को हिंगलिश बना दिया | आधुनिक बनने के चक्कर में हम ये भूल गए की हमारी वो संस्कृति  और सभ्यता नष्ट हो रही है जिस पर हमें बहुत नाज़ है क्योंकि जब आधुनिक विश्व में तकनीक और विज्ञान और विकास में जब हम पिछड़ते हैं तो इसी सभ्यता और संस्कृति की ढाल हमें बचाती है |  ये एक कडवी सच्चाई है की हम वर्तमान में विकास, शहरीकरण , तकनीक , स्वास्थ्य आदि में पश्चिम से बहुत पीछे हैं और इसका कारण हमारी भाषा को लेकर उपेक्षा ही है क्योंकि भाषा आत्मसम्मान है | हम पश्चिम की भदेस संस्कृति को ही अपने लिए उपयुक्त समझ रहे हैं जो कहीं से भी हमारे लिए उपयुक्त नहीं है | बालक और युवा वर्ग इस की गंभीरता को नहीं समझ सकता | इसकी ज़िम्मेदारी   नेताओं, अध्यापकों , बुद्धिजीवियों, माँ- बाप , अभिभावकों आदि समाज के जिम्मेदार लोगों पर है क्योंकि जो भाषा ,सभ्यता और संस्कृति हम तक इस विकसित स्वरुप में मिली उसके विकास में हजारों वर्ष लग गए | यदि यह नष्ट- भ्रस्ट हो गयी तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को क्या दे पायेंगे और कुछ दिनों बाद  हमारे पास और देने के लिए कुछ बचेगा  भी नहीं सिवाय भदेस भाषा और अपसंस्कृति के |   यहाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की यह कविता देना समीचीन होगा-
 " निज भाषा उन्नति अहै ,
    सब उन्नति को मूल |
   बिन निज भाषा ज्ञान के ,
   मिटे न हिय को शूल |"
इतिहास साक्षी है के विश्व के अधिकाँश देश  यूनान, फ़्रांस, रूस, इटली, जर्मनी, इसराईल, चीन   इत्यादि ने अपनी भाषा में ही विकास किया और विकसित बने | उन्हें आधुनिक और विकसित  बनने के लिए उधार की भाषा की जरुरत नहीं पड़ी | हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विश्व के तमाम देशों का  भारत के प्रति  आकर्षण भारत की विशिष्ट भाषा ,सभ्यता और संस्कृति के कारण है , यहाँ के शौपिंग मॉल और फ्लाई ओवर के कारण नहीं | अतः आज जरुरत है अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की न कि सिर्फ  खोखली नारेबाजी करने की | क्योंकि इसी  भाषा , सभ्यता और संस्कृति के कारण  हमारी विश्व  में विशिष्ट और अनूठी पहचान है |

                                                                       (राजीव श्रीवास्तव , एडवोकेट )

आखिर कब तक सहेंगे?

                      


                                                                                                                                                                                                                                  हम भारतीय वास्तव में कायर हैं |  क्या हम कभी आतंकवाद का मुहतोड़ जवाब दे पायेंगे ? शायद कभी भी नहीं| क्यूंकि हम भारतीय  ऐतिहासिक रूप से कायर हैं| शायद ये बात लोगों को बुरा लगे पर ये बिलकुल  सच है| इतिहास गवाह है इस बात का | जब हमें विश्व में पिछड़ा माना जाता है तो हम तुरंत इतिहास कि गवाही देने लगते हैं, कि प्राचीन काल में हम बहुत आगे थे, ये थे , वो थे | जब हमें technology में पीछे कहा जायेगा तो हम तुरंत इतिहास का हवाला देंगे कि जीरो और दशमलव हमने ही दिया पर हम ये भूल जायेंगे कि हमारे खोखले अहंकार के कारण ये ज्ञान लुप्त हो गया | और अब वास्तविकता ये है के एक दो कौड़ी के सायकिल से ले के अंतरिक्ष यान तक किसी का आविष्कार हमने नहीं किया | जो भी पुराणों में यानो का वर्णन है उसका कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है | आज software के field में जो हल्ला मचा रहे हैं उसका भी आविष्कार हमने नहीं किया | हाँ पर ऐतिहासिक हवाला देकर  क्रेडिट जरुर लेंगे | ये इतिहास ही हमें बताता है कि जब जब हमारे ऊपर अत्याचार हुआ है हमने सिर्फ लात ही खायी है , खून बहाया पर डट कर विरोध नहीं किया | अपनी कमजोरियों को ना समझते हुए सहनशीलता और सहिष्णुता का ढोंग करते रहे , कभी भविष्य के बारे में नहीं सोचा | हम  कभी भी दूरगामी परिणामों को नहीं देख पाए और आज भी वही कर रहे हैं| तभी तो वो कौमे और आक्रमणकारी लोग ( शक, हून, मंगोल, अरब, तुर्क और मुस्लमान और अंग्रेज ) जो सिर्फ और सिर्फ लुटेरे और वहशी दरिन्देथे हमारे देश में बस कर हमारी  अनोखी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट-भ्रस्ट  कर  हमें ही तहज़ीब और तमीज सिखाने लगे | वो ये भूल गए के वो एक खानाबदोश , असभ्य और बर्बर कबीलाई सभ्यता के थे और हम एक स्थापित, शांतिप्रिय और सभ्य कौम  और ये सब  भी हमारी कमजोरी से ही हुआ है, और यही इतिहास फिर से दुहराया जा रहा है क्यूंकि हमारे देश का नेतृत्व फिर से वैसे हे लोगों के हाथों में है जो सिर्फ निजी स्वार्थ के कारण देश की सुरक्षा खतरे में डाल रहे हैं| दिक्कत ये है की हम सब आम जनता से लेके राजनीतिज्ञ  तक सभी सिर्फ नौटंकीबाज़ हैं और आपस में ही एक दूसरे से राजनीति करेंगे चाहे वो कितना भी गंभीर मसला हो || हमारे  देश में सरकारी नौकरी का क्रेज देश सेवा के लिए नहीं बल्कि उस नौकरी में मिलने वाले हरामखोरी के अनगिनत अवसर को ले के है| फिर हम कैसे नेताओं, आर्मी, पुलिस, प्रशासन , intelligence इत्यादि से अपनी और देश की सुरक्षा की गारंटी की उम्मीद रखते हैं क्यूंकि ये सभी भारतीय हैं और भारतीय होने के नाते उन्ही सारी कमियों से ग्रसित हैं( कुछ लोग इसके अपवाद भी हैं पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ) जो ऊपर बताई गयी है| तभी तो हम गंगा और यमुना नदियों के किनारे रोज घंटा , शंख बजाते रहे , आरती उतारते रहे, पाखंड करते रहे पर प्रदूषण  नहीं दूर कर पाए और उधर अंग्रेज मलेच्छ होते हुए भी THAMES नदी को साफ़ कर लिए और वो भी घंटा , शंख बजाये बिना, आरती उतारे बिना और  बिना पुरोहित  जी को दक्षिणा दिए  | यही एक बुनियादी फर्क है हमारे और विदेशियों में कि अमेरिका में    सितम्बर ११  के बाद दुबारा घटना नहीं हुयी| मुझे पता है कि कुछ लोग इसका भी तर्क खोज लेंगे| पर इसी कुतर्क के कारण ही आज हम लतियाये जा रहे हैं क्यूंकि हम थेथर हो चुके हैं अपनी कमजोरी का बहाना खोजते- खोजते | पर ये सब ठीक हो सकता है अगर हम नौटंकी, और पाखण्ड छोड़ दें और हर चीज पर राजनीति करना बंद कर दें | ये बात सिर्फ  राजनीतिक पार्टियों पर ही लागू नहीं होती बल्कि आम आदमी के लिए भी ये उतनी ही जरुरी हैं |  आखिर कब तक सहेंगे ?                                                                                                                                                   ( राजीव श्रीवास्तव, एडवोकेट)