काशी के लिए ये कहा जाता है कि सात वार और नौ त्यौहार अर्थात सप्ताह के दिनों से अधिक यहाँ उत्सव और आनंद मनाया जाता है | बल्कि हम यह कह सकते हैं कि काशीवाशियों को उत्सव मनाने का बहाना चाहिए | उसी परंपरा की कड़ी में काशी की रामलीला भी है | इन सभी रामलीलाओं में रामनगर की रामलीला विश्व- प्रशिद्ध , अद्भुत और अनूठी है | यों तो बरसों से इसके बारे में काफी कुछ सुनता और पढ़ता आ रहा था ,पर दुर्भाग्य से इसे देखने का सौभाग्य नहीं मिला था | कल ही एक मित्र एवं छोटे भाई सरीखे अधिवक्ता के अमूल्य सहयोग से इसका साक्षी बनने का सुअवसर मिला | रामनगर वाराणसी शहर से लगभग १० किलोमीटर की दूरी पर गंगा के उसपार बसा है | भूतपूर्व काशीनरेश का निवास भी रामनगर किले में ही है | यह विशिष्ट रामलीला लगभग १५० वर्ष पूर्व वर्तमान काशीनरेश के पूर्वजों द्वारा शुरू की गयी थी और आज भी उसी राजपरिवार के कुशल संरक्षण में इसका आयोजन एवं संचालन होता है | इस रामलीला में ख़ास बात यह है की इसमें जरा भी आधुनिकता नहीं है और इसका प्राचीन एवं मौलिक स्वरुप अभी भी विद्यमान है | पात्रों के चयन में भी विशेष सावधानी बरती जाती है | राम, लक्ष्मन, भरत, शत्रुघ्न और सीता का पात्र करने वाले कलाकारों का चयन संभ्रांत ब्राहमण परिवारों से होता है और बाकि के पात्र अपने जीवन में भी अपने वास्तविक नामों के स्थान पर इन्ही पात्रों के नाम से बुलाये जाते है जैसे जामवंत का पात्र निभाने वाले व्यक्ति का वास्तविक नाम कुछ भी हो पर उसका नाम जामवंत गुरु पड़ जाता है | ये पात्र अपने जीवन में भी शुद्ध और सात्विक आचरण करने लगते हैं | यह रामलीला एक ही स्थान पर नहीं होती बल्कि १२-१३ किलोमीटर के क्षेत्र में होती है क्योंकि अयोध्या, चित्रकूट, लंका आदि स्थान अलग-अलग जगहों पर हैं | पूरी रामलीला सिर्फ पेट्रोमैक्स , मशाल और महताबी की रोशनी में होती है , संवाद भी बिना माइक के बोले जाते हैं , अर्थात आधुनिकता से कोसों दूर | इस रामलीला को देखने के लिए दूर -दूर से साधू, सन्यासी, और विभिन्न समुदाय के लोग आते हैं | प्रतिदिन वाराणसी से सैकड़ों लोग इसे देखने पहुते हैं | ये लीलाप्रेमी अपने ख़ास एवं खांटी बनारसी अंदाज़ में लीला देखने पहुचते हैं अर्थात चौचक नहा- निपट कर , लकालक धोती -कुरता , दुपलिया टोपी पहनकर , माथे पर चन्दन टीका धारण कर , इतर लगा कर और भांग-ठंडाई छान कर | वाराणसी का यादव समुदाय आँखों में काजल लगा कर और हाथ में सेंगरा ( एक ख़ास प्रकार की लाठी जिसमे पीतल या चांदी की मूठ लगी होती है ) लेकर यहाँ पहुचता है | नित्य लीला देखने वालों को नेमी कहा जाता है और ये नेमी लोग अपने साथ पीढ़ा या बोरा (बैठने के लिए ), टार्च(अँधेरे में रामायण पढने के लिए ) और रामचरितमानस की पोथी लेकर लीला देखते हैं | यहाँ लीला के साथ ही रामायनियों द्वारा रामचरितमानस का वाचन भी साथ-साथ चलता है और नेमी लोग भी साथ में ही पाठ करते हैं | इस रामायण का गायन एक ख़ास शैली में किया जाता है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा और इस शैली को रामलैईला धुन कहा जाता है और इसमें दोहे की शुरुआत हे हा- हे हा के उच्चारण के साथ की जाती है | इस लीला को देखने काशीनरेश का राजपरिवार भी साथ रहता है |
कल धनुषयज्ञ की लीला थी | व्यास जी के चुप रहो-चुप रहो सावधान कहने पर पुरे जनसमुदाय में शांति छा गयी | फिर लीला शुरू हुई जैसे ही श्री राम जी ने धनुष भंग किया ठीक उसी समय सड़क के उस पार पी. ए. सी. के compound में तोप का धमाका हुआ , शंख बजने लगे और चारों ओर श्री रामचंद्र की जय का उद्घोष हुआ | फिर परशुराम - लक्ष्मण का संवाद हुआ और अंततः महताबी की रोशनी में आरती के साथ लीला का समापन हुआ | इस लीला में नाट्य या ड्रामा बिलकुल भी नहीं है यह एक पूर्णरूप से आध्यात्मिक आयोजन है | आस्था से देखने पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है | आरती के बाद लोगों को साष्टांग दंडवत करते देख कर लगा की " where logic ends, Indian philosophy begins " | पर लगातार तेजी से बदलते बनारस, माल कल्चर के हावी होने और नयी पीढ़ी की अरुचि के कारण यह परंपरा कब तक बचेगी कुछ कहा नहीं जा सकता | हाल ही में यूनेस्को के वर्ल्ड हेरिटेज साईट में इसे शामिल कराने का प्रयास चल रहा है ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए भी यह विरासत बची रहे |
No comments:
Post a Comment