Sunday, 23 October 2011

देव दीपावली : काशी में उतरेगा देवलोक कार्तिक पूर्णिमा पर दिखेगा अद्भुत नजारा



गंगातट पर उतरे देवलोक की छवि जैसी है काशी की देव दीपावली। दिवाली के 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को काशी में गंगा के अर्धचंद्राकार घाटों पर दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश 'देवलोक' जैसे वातावरण की सृष्टि करता है। पिछले 10-12 सालों में ही पूरे देश और विदेशों में आकर्षण का केंद्र बन चुका देव दीपावली महोत्सव 'देश की सांस्कृतिक राजधानी' काशी की संस्कृति की पहचान बन चुका है।


करीब तीन किलोमीटर में फैले अर्धचंद्राकार घाटों पर जगमगाते लाखों-लाख दीप, गंगा की धारा में इठलाते-बहते दीप, एक अलौकिक दृश्य की सृष्टि करते हैं। शाम होते ही सभी घाट दीपों की रोशनी में नहा-जगमगा उठते हैं। इस दृश्य को आँखों में समा लेने के लिए लाखों देशी-विदेशी अतिथि घाटों पर उमड़ पड़ते हैं। इस बार यह अद्भुत नजारा 21 नवंबर को दिखेगा।

कार्तिक पूर्णिमा को सायंकाल गंगा पूजन के बाद काशी के 80 से अधिक घाटों में से हर घाट पर दीपों की लौ प्रकाश के अद्भुत प्रभामंडल की सृष्टि करती है। शरद् ऋतु को भगवान की महारासलीला का काल माना गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार शरद् पूर्णिमा की चाँदनी में श्रीकृष्ण का महारास संपन्न हुआ था।


इसी पृष्ठभूमि में शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाली दीपदान की परंपरा आकाशदीपों के माध्यम से काशी में अनूठे सांस्कृतिक वातावरण की द्योतक है। गंगा के किनारे घाटों पर और मंदिरों, भवनों की छतों पर आकाश की ओर उठती दीपों की लौ यानी आकाशदीप के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना तथा मुक्ति-कामना की यह बनारसी पद्धति है।


ये आकाशदीप पूरे कार्तिक मास में बाँस-बल्लियों के सहारे टंगे, टिमटिमाते 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का शाश्वत संदेश देते हैं। इसी क्रम में ये दीप कार्तिक पूर्णिमा के पावन पर्व पर पृथ्वी पर गंगा के तट पर अवतरित होते हैं।




पिछले लगभग दो दशकों में काशी की देव दीपावली का अवसर देश का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धार्मिक अवसर बन गया है। शंकराचार्य की प्रेरणा से प्रारंभ होने वाला यह दीप-महोत्सव पहले केवल पंचगंगा घाट की शोभा था। आगे चलकर काशी के सभी घाटों की नयनाभिराम छवि का अवसर बन गया। काशी में चार 'लाखा' मेलों (जिसमें लाख से अधिक भक्त, दर्शक जुटते हैं) की प्राचीन परंपरा रही है।




नाटी इमली भरत मिलाप, तुलसी घाट की नागनथैया, चेतगंज की नटैया और रथयात्रा मेला इसमें शुमार हैं। लेकिन काशी के घाटों पर संपन्न होने वाली देव दीपावली के मौके पर उपस्थित लाखों की भीड़ ने इसे काशी के पाँचवें 'लाखा' मेले का रूप दे दिया है।

परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम-देव दीपावली- धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर के प्रयत्नों से भी जुड़ा है। अहिल्याबाई होलकर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत 'हजारा दीपस्तंभ' स्थापित किया था, जो इस परंपरा का साक्षी है। आधुनिक देव-दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। पंचगंगा घाट का यह 'हजारा दीपस्तंभ' देव दीपावली के दिन 1001 से अधिक दीपों की लौ से जगमगा उठता है और अभूतपूर्व दृश्य की सृष्टि करता है।

नीचे कल-कल बहती सदानीरा गंगा की लहरें, घाटों की सीढि़यों पर जगमगाते दीपक और गंगा की धारा के समानांतर बहती हुई सी दर्शकों की जन-धारा देव दीपावली की शाम से आधीरात तक अनूठा दृश्य प्रस्तुत करती हैं। इस विस्मयकारी दृश्य की संकल्पना की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डॉ. विभूतिनारायण सिंह की प्रेरणा उल्लेखनीय थी। बाद में स्वामी रामनरेशाचार्य जी, नारायण गुरु किशोरी रमण दुबे 'बाबू महाराज' (गंगोत्री सेवा समिति, दशाश्वमेध घाट), सत्येन्द्र मिश्र 'मुन्नन जी' (गंगा सेवानिधि) तथा कन्हैया त्रिपाठी (गंगा सेवा समिति) ने इस संकल्प को भव्य आयाम प्रदान किया।

विश्वास-आस्था और उत्सव के इस दृश्य को आँखों में भर लेने को उत्सुक लोग देश-विदेश से इस दिन खिंचे चले आते हैं। प्रमुख घाटों पर तिल रखने भर की जगह नहीं होती। नावों के किराए कई सौ गुना ज्यादा होने के बावजूद और घाटों पर उत्सवी माहौल की भीड़ उमड़ने के इस अवसर का तिलिस्मी आकर्षण ग्लोबल होता जा रहा है।

दुनिया के कोने-कोने से पहुँचे देशी-विदेशी पर्यटकों से पूरा शहर, होटल, धर्मशालाएँ सभी भर जाती हैं। युद्ध में शहीद सैनिकों को दीप-श्रद्धांजलि के पर्व के रूप में भी यह पर्व प्रतिष्ठित हो गया है। घाटों के साथ ही नगर के तालाबों, कुंडों, मंदिरों में भी देव दीप पर्व पर काशी के घाटों पर कुछ ऐसा होता है देव दीपावली का नजारा।

-- अमितांशु पाठक

कॉन्वेंट स्कूलों के जरिये इतिहास को विकृत करने का घटिया कुप्रचार (औरंगजेब और काशी विश्वनाथ सम्बन्धी एक नकली “सेकुलर” कहानी की धज्जियाँ)

कुछ दिनों पूर्व “तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कड़गम” (TTMK) (नाम सुना है कभी???) के एक नेता एम एच जवाहिरुल्ला ने एक जनसभा में फ़रमाया कि “औरंगजेब के खिलाफ़ सबसे बड़ा आरोप है कि उसने काशी विश्वनाथ का मन्दिर ध्वस्त किया था, हालांकि यह सच है, लेकिन उसने ऐसा क्यों किया था यह भी जानना जरूरी है” उसके बाद उन्होंने स्व बीएन पांडे की एक पुस्तक का हवाला दिया और प्रेस को बताया कि असल में औरंगजेब के एक वफ़ादार राजपूत राजा की रानी का विश्वनाथ मन्दिर में अपमान हुआ और उनके साथ मन्दिर में लूट की घटना हुई थी, इसलिये औरंगजेब ने मन्दिर की पवित्रता बनाये रखने के लिये(???) काशी विश्वनाथ को ढहा दिया था”… (हुई न आपके ज्ञान में बढ़ोतरी)। एक कट्टर धार्मिक बादशाह, जो अपने अत्याचारों और धर्म परिवर्तन के लिये कुख्यात था, जिनके खानदान में दारुकुट्टे और हरमों की परम्परा वाले औरतबाज लोग थे, वह एक रानी की इज्जत के लिये इतना चिंतित हो गया? वो भी हिन्दू रानी और हिन्दू मन्दिर के लिये कि उसने “सम्मान” की खातिर काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहा दिया? कोई विश्वास कर सकता है भला? लेकिन इस प्रकार की “सेकुलर”(?) कहानियाँ सुनाने में वामपंथी लोग बड़े उस्ताद हैं।

जब अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था, उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद ने अपने अगले लक्ष्य तय कर लिये थे कि अब काशी और मथुरा की बारी होगी। हालांकि बाद में बनारस के व्यापारी समुदाय द्वारा अन्दरूनी विरोध (आंदोलन से धंधे को होने वाले नुकसान के आकलन के कारण) को देखते हुए परिषद ने वह “आईडिया” फ़िलहाल छोड़ दिया है। लेकिन उसी समय से “सेकुलर” और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काशी की मस्जिद के पक्ष में माहौल बनाने के लिये कहानियाँ गढ़ना शुरु कर दिया था, जिससे यह आभास हो कि विश्वनाथ का मन्दिर कोई विवादास्पद नही है, न ही उससे लगी हुई मस्जिद। हिन्दुओं और मीडिया को यह यकीन दिलाने के लिये कि औरंगजेब एक बेहद न्यायप्रिय और “सेकुलर” बादशाह था, नये-नये किस्से सुनाने की शुरुआत की गई, इन्हीं में से एक है यह कहानी। इसके रचयिता हैं श्री बी एन पांडे (गाँधी दर्शन समिति के पूर्व अध्यक्ष और उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल)।

बहरहाल, औरंगजेब को “संत” और परोपकारी साबित करने की कोशिश पहले शुरु की सैयद शहाबुद्दीन (आईएफ़एस) ने, जिन्होंने कहा कि “मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ़ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता” (कितने भोले बलम हैं शहाबुद्दीन साहब)। फ़िर जेएनयू के स्वघोषित “सेकुलर” बुद्धिजीवी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा जोर लगा दिया, जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि खुलेआम बताते हैं कि उस समय हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। यहाँ तक कि अरुण शौरी जी ने 2 सितम्बर 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसे “मासिरी आलमगिरी” कहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया कि “बादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया”, और आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।

खैर, वापस आते हैं मूल कहानी की ओर… लेखक फ़रमाते हैं कि “एक बार औरंगजेब बंगाल की ओर यात्रा के दौरान लवाजमे के साथ बनारस के पास से गुजर रहा था, तब साथ चल रहे हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से विनती की कि यहाँ एक दिन रुका जाये ताकि रानियाँ गंगा स्नान कर सकें और विश्वनाथ के दर्शन कर सकें, औरंगजेब राजी हो गया(???)। बनारस तक के पाँच मील लम्बे रास्ते पर सेना तैनात कर दी गई और तमाम रानियाँ अपनी-अपनी पालकी में विश्वनाथ के दर्शनों के लिये निकलीं। पूजा के बाद सभी रानियाँ वापस लौट गईं सिवाय एक रानी “कच्छ की महारानी” के। महारानी की तलाश शुरु की गई, मन्दिर की तलाशी ली गई, लेकिन कुछ नहीं मिला। औरंगजेब बहुत नाराज हुआ और उसने खुद वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मन्दिर की तलाशी ली। अन्त में उन्हें पता चला कि गणेश जी की मूर्ति के नीचे एक तहखाना बना हुआ है, जिसमें नीचे जाती हुई सीढ़ियाँ उन्हें दिखाई दीं। तहखाने में जाने पर उन्हें वहाँ खोई हुई महारानी मिलीं, जो कि बुरी तरह घबराई हुई थीं और रो रही थी, उनके गहने-जेवर आदि लूट लिये गये थे। हिन्दू राजाओं ने इसका तीव्र विरोध किया और बादशाह से कड़ी कार्रवाई करने की माँग की। तब महान औरंगजेब ने आदेश दिया कि इस अपवित्र हो चुके मन्दिर को ढहा दिया जाये, विश्वनाथ की मूर्ति को और कहीं “शिफ़्ट” कर दिया जाये तथा मन्दिर के मुख्य पुजारी को गिरफ़्तार करके सजा दी जाये। इस तरह “मजबूरी” में औरंगजेब को काशी विश्वनाथ का मन्दिर गिराना पड़ा… ख्यात पश्चिमी इतिहासकार डॉ कोनराड एल्स्ट ने इस कहानी में छेद ही छेद ढूँढ निकाले, उन्होंने सवाल किये कि –

1) सबसे पहले तो इस बात का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है कि औरंगजेब ने इस प्रकार की कोई यात्रा दिल्ली से बंगाल की ओर की थी। उन दिनों के तमाम मुगल दस्तावेज और दिन-ब-दिन की डायरियाँ आज भी मौजूद हैं और ऐसी किसी यात्रा का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता, और पांडे जी ने जिस चमत्कारिक घटना का विवरण दिया है वह तो अस्तित्व में थी ही नहीं।
2) औरंगजेब कभी भी हिन्दू राजाओं या हिन्दू सैनिकों के बीच में नहीं रहा।
3) जैसा कि लिखा गया है, क्या तमाम हिन्दू राजा अपनी पत्नियों को दौरे पर साथ रखते थे? क्या वे पिकनिक मनाने जा रहे थे?
4) सैनिकों और अंगरक्षकों से चारों तरफ़ से घिरी हुई महारानी को कैसे कोई पुजारी अगवा कर सकता है?
5) हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से कड़ी कार्रवाई की माँग क्यों की? क्या एक लुटेरे पुजारी(???) को सजा देने लायक ताकत भी उनमें नहीं बची थी?
6) जब मन्दिर अपवित्र(?) हो गया था, तब उसे तोड़कर नई जगह शास्त्रों और वेदों के मुताबिक मन्दिर बनाया गया, लेकिन कहाँ, किस पवित्र जगह पर?

दिमाग में सबसे पहले सवाल उठता है कि पांडे जी को औरंगजेब के बारे में यह विशेष ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ? खुद पांडे जी अपने लेखन में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इसके बारे में डॉ पट्टाभि सीतारमैया की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़ा था (यानी कि खुद उन्होंने किसी मुगल दस्तावेज का अध्ययन नहीं किया था, न ही कहीं का “रेफ़रेंस” दिया था)। औरंगजेब को महात्मा साबित करने के लिये जेएनयू के प्रोफ़ेसर के एन पणिक्कर की थ्योरी यह थी कि “काशी विश्वनाथ मन्दिर ढहाने का कारण राजनैतिक रहा होगा। उस जमाने में औरंगजेब के विरोध में सूफ़ी विद्रोहियों और मन्दिर के पंडितों के बीच सांठगांठ बन रही थी, उसे तोड़ने के लिये औरंगजेब ने मन्दिर तोड़ा” क्या गजब की थ्योरी है, जबकि उस जमाने में काशी के पंडित गठबन्धन बनाना तो दूर “म्लेच्छों” से बात तक नहीं करते थे।

खोजबीन करने पर पता चलता है कि पट्टाभि सीतारमैया ने यह कहानी अपनी जेलयात्रा के दौरान एक डायरी में लिखी थी, और उन्होंने यह कहानी लखनऊ के एक मुल्ला से सुनी थी। अर्थात एक मुल्ला की जबान से सुनी गई कहानी को सेकुलरवादियों ने सिर पर बिठा लिया और औरंगजेब को महान साबित करने में जुट गये, बाकी सारे दस्तावेज और कागजात सब बेकार, यहाँ तक कि “आर्कियोलॉजी विभाग” और “मासिरी आलमगिरी” जैसे आधिकारिक लेख भी बेकार।

तो अब आपको पता चल गया होगा कि अपनी गलत बात को सही साबित करने के लिये सेकुलरवादी और वामपंथी किस तरह से किस्से गढ़ते हैं, कैसे इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हैं, कैसे मुगलों और उनके घटिया बादशाहों को महान और धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। एक ग्राहम स्टेंस को उड़ीसा में जलाकर मार दिया जाता है या एक जोहरा के परिवार को बेकरी में जला दिया जाता है (यह एक क्रूर और पाशविक कृत्य था) लेकिन उस वक्त कैसे मीडिया, अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ईसाई संगठन और हमारे सदाबहार घरेलू “धर्मनिरपेक्षतावादी” जोरदार और संगठित “गिरोह” की तरह हल्ला मचाते हैं, जबकि इन्हीं लोगों और इनके साथ-साथ मानवाधिकारवादियों को कश्मीर के पंडितों की कोई चिन्ता नहीं सताती, श्रीनगर, बारामूला में उनके घर जलने पर कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं जाता, एक साजिश के तहत पंडितों के “जातीय सफ़ाये” को सतत नजर-अंदाज कर दिया जाता है। असम में बांग्लादेशियों का बहुमत और हिन्दुओं का अल्पमत नजदीक ही है, लेकिन इनकी असल चिंता होती है कि जेलों में आतंकियों को अच्छा खाना मिल रहा है या नहीं? सोहराबुद्दीन के मानवाधिकार सुरक्षित हैं या नहीं? अबू सलेम की तबियत ठीक है या नहीं? फ़िलिस्तीन में क्या हो रहा है? आदि-आदि-आदि। अब समय आ गया है कि इनके घटिया कुप्रचार का मुँहतोड़ जवाब दिया जाये, कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी इन “बनी-बनाई” कहानियों और “अर्धसत्य” के बहकावे में आ जाये (हालांकि कॉन्वेंट स्कूलों के जरिये इतिहास को विकृत करने में वे सफ़ल हो रहे हैं), क्योंकि NDTV जैसे कई कथित “धर्मनिरपेक्ष” मीडिया भी इनके साथ है। इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?

सन्दर्भ – डॉ कोनराड एल्स्ट एवं बी शान्तनु

जागरूकता का प्रकाश ही दिवाली !


हमारे पूर्वजों द्वारा लम्बे समय से दिवाली के अवसर पर रोशनी हेतु दीपक जलाये जाते रहे हैं। एक समय वह था, जब दीपावली के दिन अमावस की रात्री के अन्धकार को चीरने के लिये लोगों के मन में इतनी श्रृद्धा थी कि अपने हाथों तैयार किये गये शुद्ध घी के दीपक जलाये जाते थे। समय बदला और साथ ही साथ श्रृद्धा घटी या गरीबी बढी कि लोगों ने घी के बजाय तेल के दिये जालाने की परम्परा शुरू कर दी।
समय ने विज्ञान के साथ करवट बदली माटी का दीपक और कुम्हार भाईयों का सदियों पुराना परम्परागत रोजगार एक झटके में छिन गया। दिवाली पर एक-दो सांकेतिक दीपक ही मिट्टी के रह गये और मोमबत्ती जलने लगी। अब तो मोमबत्ती की उमंग एवं चाह भी पिघल चुकी है। विद्युत की तरंगों के साथ दीपावली की रोशनी का उजास और अन्धकार को मिटाने का सपना भी निर्जीव हो गया लगता है।
दीपक जलाने से पूर्व हमारे लिये विचारणीय विषय कुछ तो होना चाहिये। आज के समय में मानवीय अन्धकार के साये के नीचे दबे और सशक्त लोगों के अत्याचार से दमित लोगों के जीवन में उजाला कितनी दूर है? क्या दिवाली की अमावस को ऐसे लोगों के घरों में उजाला होगा? क्या जरूरतमन्दों को न्याय मिलने की आशा की जा सकती है? क्या दवाई के अभाव में लोग मरेंगे नहीं? क्या बिना रिश्वत दिये अदालतों से न्याय मिलेगा? दर्द से कराहती प्रसूता को बिना विलम्ब डॉक्टर एवं नर्सों के द्वारा संभाला जायेगा? यदि यह सब नहीं हो सकता तो दिवाली मनाने या दीपक जलाने का औचित्य क्या है?
हमें उन दिशाओं में भी दृष्टिपात करना होगा, जिधर केवल और अन्धकार है! क्योंकि अव्यवस्था एवं कुछेक दुष्ट, बल्कि महादुष्ट एवं असंवेदनशील लोगों की नाइंसाफी का अन्धकार न केवल लोगों के वर्तमान एवं भविष्य को ही बर्बाद करता रहा है, बल्कि नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद को भी जन्म दे रही है। जिसकी जिनगारी हजारों लोगों के जीवन को लील चुकी है और जिसका भष्टि अमावश की रात्री की भांति केवल अन्धकारमय ही नजर आ रहा है। आज नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद के समक्ष ताकतवर राज्य व्यवस्था भी पंगु नजर आ रही है। आज देश के अनेक प्रान्तों में नक्सलवाद के कहर से कोई नहीं बच पा रहा है!
अन्धकार के विरुद्ध प्रकाश या नाइंसाफी के विरुद्ध इंसाफ के लिये घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले तो मात्र हमें प्रेरणा देने के संकेतभर हैं। सच्चा दीपक है, अपने अन्दर के अन्धकार को मिटाकर उजाला करना! जब तक हमारे अन्दर अज्ञानता या कुछेक लोगों के मोहपाश का अन्धकार छाया रहेगा, हम दूसरों के जीवन में उजाला कैसे बिखेर सकते हैं।
अत: बहुत जरूरी है कि हम अपने-आपको अन्धेरे की खाई से निकालें और उजाले से साक्षात्कार करें। अत: दिवाली के पावन और पवित्र माने जाने वाले त्यौहार पर हमें कम से कम समाज में व्याप्त अन्धकार को मिटाने के लिये नाइंसाफी के विरुद्ध जागरूकता का एक दीपक जलाना होगा, क्योंकि जब जागरूक इंसान करवट बदलता है तो पहा‹डों और समुद्रों से मार्ग बना लेता है। इसलिये इस बात को भी नहीं माना जा सकता कि मानवता के लिये कुछ असम्भव है। सब कुछ सम्भव है। जरूरत है, केवल सही मार्ग की, सही दिशा की और सही नेतृत्व की। आज हमारे देश में सही, सशक्त एवं अनुकरणीय नेतृत्व का सर्वाधिक अभाव है।
किसी भी राष्ट्रीय दल, संगठन या समूह के पास निर्विवाद एवं सर्वस्वीकार्य नेतृत्व नहीं है। सब काम चलाऊ व्यवस्था से संचालित है। पवित्रा के प्रतीक एवं धार्मिक कहे जाने वाले लोगों पर उंगलियाँ उठती रहती हैं। ऐसे में आमजन को अपने बीच से ही मार्ग तलाशना होगा। आमजन ही, आमजन की पीडा को समझकर समाधान की सम्भावनाओं पर विचार कर सकता है। अन्यथा हजारों सालों की भांति और आगे हजारों सालों तक अनेकानेक प्रकार के दीपक जलाते जायें, यह अन्धकार घटने के बजाय बढता ही जायेगा।
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Wednesday, 19 October 2011

india against corruption

देश बदलेगा केवल कानून से नही बल्कि हमारे ऐसे प्रयासों से.. स्वयं शपथ लें की "मैं ना कभी रिश्वत लूंगा ना दूंगा " और सभी सरकारी दफ्तरों में भी ऐसा माहौल बनाएं.. उनको भी शपथ याद दिलवाएं - की अबसे उनके दफ्तर में भ्रष्टाचार निषेध है!!

ये है बनारस मेरी जान

ये कुछ मजेदार पलो  को कैद किया है राजेश कुमार गुप्ता जी ने,
क्या यह दिखने के लिए पर्याप्त नहीं है कि हम बनारस वालो की जिंदगी जीने कि अपनी स्टाइल है,
हम ने विज्ञानं के आधुनिकतम यंत्रो से लेकर प्रकृति के पुराने  पटरिया जुगाडो का उपयोग किया है
 मगर  अपने अंदाज में.

Monday, 3 October 2011

किसानों की आत्महत्या के लिए कम बारिश नहीं, भ्रष्टाचार जिम्मेदार!


नई दिल्ली. मैं अब तक वह रात नहीं भूला हूं जब लुधियाना जिले में हरित क्रांति के दौर में एक किसान ने बाज़ार से खरीदा गया खाद का एक बोरा दिखाया। मैंने किसान से पूछा, आप यह बोरा मुझे क्यों दिखा रहे हैं? जवाब में उसने बोरे को खोलना शुरू किया। बोरे को खोलकर जब किसान ने खाद के दानों को हाथ से मसला तो उसमें से मिट्टी निकल आई। बाहर से बेहद साफ और ब्रैंडेड जूट के बोरा में खाद के नाम पर सिर्फ मिट्टी थी।

कई सालों बाद 1997 में आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले में पहली बार बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की थी। पूरे जिले में तब करीब 37 किसानों ने आत्महत्या की थी। मैंने इस घटना के बाद वारंगल जिले में कई गांवों का दौरा किया। इस दौरान ज़्यादातर लोग बारिश नहीं होने को किसानों की आत्महत्या की वजह बता रहे थे। लेकिन मैंने पाया कि कपास की खेती तबाह होने की वजह मिलावटी कीटनाशक थे, जिसकी वजह से किसानों को ऐसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा। बाद में जांच के नतीजे आए जिसमें पाया गया कि वारंगल जिले में बिकने वाले 80 फीसदी कीटनाशकों या तो पूरी तरह से नकली थे या फिर उनमें मिलावट थी।

आज के दौर में खेती बर्बादी की कगार पर है। कृषि क्षेत्र में बर्बादी की कहानी पूरे देश में एक जैसी है। मरते हुए खेत और तड़पते किसान। लगातार खराब हो रही मिट्टी, नीचे जा रहा भूजल का स्तर और रासायनिक खाद के इस्तेमाल की वजह से खेती अब बहुत बुरे संकट में फंस गई है। इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है। खेती अब घाटे का सौदा होती जा रही है। यही वजह है कि खेती-किसानी से बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हो रहा है।

नीति बनाने वाले, अर्थशास्त्री और अकादमिक जगत के लोग खेती में गिरावट के लिए कई वजहों को जिम्मेदार बताते हैं। लेकिन इन सबके पीछे असली वजह से पर्दा अब तक नहीं हटा है। कृषि को हाल के कुछ सालों में सबसे ज़्यादा नुकसान भ्रष्टाचार की वजह से पहुंचा है। यह एकदम वैसा ही जैसे किसी मरे हुए जानवर के शव के इर्दगिर्द भूत मंडराएं। आप यकीन करें या नहीं लेकिन आज खेती के यही हालात हैं। नकली या घटिया किस्म के बीज, खाद, कीटनाशक और मशीनरी सिर्फ खेती की बर्बादी की कहानी का एक हिस्सा भर हैं। गुणवत्ता पर नियंत्रण जैसी बात भी करना अब बेमानी लगता है। इसके अलावा टेस्टिंग लैब, जिनके बारे में कहा जाता है कि सैंपल को पास करने के लिए उनके रेट तय हैं। इन सबके होते हुए सबसे ज़्यादा घाटा किसान को ही होता है। यही वजह है कि राज्य सरकारों के कृषि विभागों में पौध संरक्षण अधिकारी या गुणवत्ता नियंत्रक के पदों के लिए मारामारी रहती है।

राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर फंड पास किए हुए हैं। जब मैं इन मदों में मिले पैसे का गलत इस्तेमाल देखता हूं तो सोचता हूं कि सीएजी ने खाद्य सुरक्षा के नाम पर संसाधनों के गलत ढंग से इस्तेमाल पर ध्यान क्यों नहीं दिया। ऐसे मामलों में फंड का ज़्यादातर हिस्सा कृषि विभाग के बड़े अफसरों की जेब में जाता है।   ज़्यादातर कृषि अधिकारियों और खाद, बीज, मशीनरी जैसी जरूरी चीजें सप्लाई करने वाले लोगों के बीच में हमेशा बहुत अच्छा रिश्ता रहा है। जिन जगहों पर ईमानदार अधिकारियों ने गड़बड़ी करने वाली फर्मों पर कार्रवाई भी की, उन जगहों पर भी फर्मों के लिए शटर बंद करके नई फर्म बनाकर काम करना मुश्किल नहीं है।

पिछले कई सालों में,  मैंने ऐसे कई लोगों के कारोबार में जबर्दस्त बढ़ोतरी देखी है, जो कभी मिलावट चीजों के व्यापारी माने जाते थे।  रातों रात मुनाफा कमा कर भागने वाली कंपनियां बीज के कारोबार को बहुत पसंद करती है। नकली बीज के कारोबार के लिए कड़े कानूनों के बावजूद बाज़ार में फर्जी बीजों की भरमार है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा था कि बीज का कारोबार करने वाली एक बड़ी कंपनी ने मक्के के दोयम किस्म के हाइब्रिड बीज सप्लाई किए हैं और नुकसान की भरपाई से भी इनकार कर दिया। इसके चलते बिहार सरकार को 60 करोड़ रुपये का घाटा सहना पड़ा।

  
फसल की कटाई के बाद किसानों की परेशानी दूसरी शक्ल लेती है। जिन इलाकों में (पंजाब, हरियाणआ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में) मंडी और फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम वगैरह हैं, वहां किसान आढ़तियों और मंडी एजेंटों की दया पर निर्भर हैं। देश के बाकी हिस्सों में किसानों का शोषण किया जाता है और उन्हें औने पौने दामों में अनाज बेचने के लिए मजबूर किया जाता है।  यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी किसान के लिए मेहनत के बावजूद अपनी फसल का उचित दाम हासिल करना किसी बुरे सपने से कम नहीं है। बैंक, कर्ज बांटने वाले सूदखोर और माइक्रो क्रेडिट एजेंसियां किसानों की लगातार खून चूसने वाली एजेंसियां बन गई हैं।

कई अध्ययनों से साफ है कि किसानों की समस्याओं के लिए बुनियादी वजह बैंकों से मिलने वाले कर्ज का कुप्रबंधन (और भ्रष्टाचार) है। माइक्रो फाइनेंस कंपनियां किसानों से 24 फीसदी से भी ज़्यादा ब्याज वसूलते हैं। यह ब्याज भी हफ्ते-हफ्ते के अंतराल पर चुकाने पड़ते हैं। इसके अलावा निजी सूदखोरों से लिया जाने वाला कर्ज किसानों के लिए अभिशाप साबित हुआ है।   अगर आप सोचते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधान, कृषि विकास और नीति बनाने के कामों में भ्रष्टाचार नहीं है तो आप बड़ी भूल कर रहे हैं।
- देवेंद्र शर्मा
  (लेखक मशहूर कृषि विशेषज्ञ हैं)
curtsy : DAINIK BHASKAR

Saturday, 1 October 2011

सेक्शन 498 -A, Indian Penal Code, का दुरुपयोग


सेक्शन 498 -A Indian Penal Code बनाने का उद्देश्य दहेज लोभियों को सजा दिलाना था लेकिन अब आज कल इस धारा का दुरुपयोग बढ़ गया है| पति-पत्नी के नोक-झोंक और घरेलू झगड़े अब कोर्ट में पहुचने लगे हैं| लोगों कि सहनशीलता कम हो रही है और एक दूसरे के प्रति सम्मान भी कम हो रहा है| अब दहेज के ज्यादातर केसों में सच्चाई कम और अहम् का टकराव ज्यादा है| मै यह नहीं कहता कि दहेज़ का हर केस झूठा है , अभी भी प्रति वर्ष हजारों महिलायें दहेज़ लोभियों की भेंट चढ़ जाती है पर अब झूठे केसों कि संख्या बढ़ रही है जो एक चिंताजनक विषय है| यदि नयी बहू का अपने ससुराल वालों या पति से नहीं पट रही है तो वो इस धारा का सहारा ले के ब्लैकमेलिंग करने लग रही हैं, अपनी जायज-नाजायज मांगों को मनवा रही हैं | मेरी नज़र में इस धारा में सबसे बड़ी गड़बड़ी यह है की यह गैर -ज़मानती है | केस करने पर सभी नामज़द लोगों की गिरफ्तारी हो जाती हैपरिपाटी यह है कि पति के सम्बन्धियों की ज़मानत तो सेशन कोर्ट से हो जाती है पर पति को ज़मानत हाई कोर्ट से ही मिल पाती है | वैसे तो यह एक non -compoundable अपराध है पर इसको लेकर अलग-अलग हाई कोर्टों की राय अलग-अलग है | अर्थात यदि माननीय  हाई कोर्ट चाहे तो उसकी  अनुमति से समझौता हो सकता है | पर इस पूरी प्रक्रिया में  वर्षों लग जाते हैं और पति-पत्नी के बीच संबंधों की खाई और चौड़ी हो जाती है| अब यह भी देखा जा रहा है कि यदि पत्नी तो तलाक चाहिए तो परिवार न्यायालय में वाद दाखिल करने के साथ-साथ दबाव बढ़ाने के लिए पति तथा उसके परिवार वालों पर  वह दहेज तथा घरेलू हिंसा का भी केस कर दे रही है | दुःख की बात यह है ये नेक सलाह हम जैसे अधिवक्ता ही दे रहे हैं| मै व्यक्तिगत रूप से कई ऐसे केसों को जानता हूं जो बिलकुल ही झूठे हैं | जैसे-(1)  मेरे पड़ोस के मिश्रा जी का केस: सीधे -साधे  अध्यापक मिश्र जी ने अपने बेटे की शादी की पर बहू ने आते ही बेटे पर परिवार से अलग रहने का दबाव बनाना शुरू कर दिया , जब बेटे ने मना किया तो पूरे परिवार पर दहेज़ का केस, बड़ी मुश्किल से लाख रूपये में पीछा छूटा| (2) सिगरा के पांडे जी का केस: पाण्डेय जी ने अपने सबसे छोटे बेटे की शादी इलाहाबाद में की , शादी के बाद पता चला कि  बहू  को मनोरोग हैअपने खर्चे पर मनोचिकित्सक से इलाज शुरू करवाया पर एक दिन बहू ने अपने कमरे में फांसी लगा कर आत्महत्या कर लिया, अब पूरा परिवार धारा -498 A के साथ-साथ धारा- 304 B (दहेज़ मृत्यु) भी झेल रहा है| चार साल हो गए पर अभी तक चार्ज भी नहीं बना | (3) ओबरा के मनीष की शादी चार साल पहले हुई, घर में सिर्फ एक बहन थी पर बहू की उससे नहीं पटी, अब दोनों भाई बहन दहेज़ का झूठा आरोप झेल रहे हैं | बहू १२ लाख रुपये मांग रही है| (4) गाजीपुर के अलका सिन्हा का केस : मायके वालों के गैरजरूरी हस्तक्षेप के कारण ससुराल वालों पर दहेज़ का केस ,  mediation centre जाने पर भी बात नहीं बनी, एक बेटी भी है पर अहम् के टकराव के कारण उसका भी भविष्य अधर में है | (5) बनारस के सलीम का केसगरीब बुनकर सलीम की बीवी का अवैध सम्बन्ध रिश्तेदार से है , विरोध करने पर माँ-बाप, भाई-बहन सहित दहेज़ के केस में अभी भी जेल में क्योंकि अत्यंत गरीब होने के कारण कोई जमानतदार नहीं है| इत्यादि| | (ऊपर  लिखे केसों में पहचान छुपाने के लिए नाम -पते  बदल दिए गए हैं)  | अब हालत यह है की कोई  वकील लड़की या वकील की लड़कियों से शादी करने में कतरा रहा है कि कही दहेज़ के झूठे केस में फंसा देहाल ही में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया है कि दहेज के केसों को mediation centre भेज देना चाहिए ताकि पति-पत्नी के सम्बन्ध बचे रह सके | पर यहाँ कोर्ट के साथ साथ सामाजिक  महिला संगठनो , लड़की के घर वालों तथा अधिवक्ताओं की भी जिम्मेदारी है कि वो इस तरह के झूठे केस करें और इस पारिवारिक टूटन और सामाजिक बिखराव को रोकें |
                                                                                                                                     
(राजीव श्रीवास्तव , एडवोकेट )