गंगातट पर उतरे देवलोक की छवि जैसी है काशी की देव दीपावली। दिवाली के 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को काशी में गंगा के अर्धचंद्राकार घाटों पर दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश 'देवलोक' जैसे वातावरण की सृष्टि करता है। पिछले 10-12 सालों में ही पूरे देश और विदेशों में आकर्षण का केंद्र बन चुका देव दीपावली महोत्सव 'देश की सांस्कृतिक राजधानी' काशी की संस्कृति की पहचान बन चुका है।
करीब तीन किलोमीटर में फैले अर्धचंद्राकार घाटों पर जगमगाते लाखों-लाख दीप, गंगा की धारा में इठलाते-बहते दीप, एक अलौकिक दृश्य की सृष्टि करते हैं। शाम होते ही सभी घाट दीपों की रोशनी में नहा-जगमगा उठते हैं। इस दृश्य को आँखों में समा लेने के लिए लाखों देशी-विदेशी अतिथि घाटों पर उमड़ पड़ते हैं। इस बार यह अद्भुत नजारा 21 नवंबर को दिखेगा।
कार्तिक पूर्णिमा को सायंकाल गंगा पूजन के बाद काशी के 80 से अधिक घाटों में से हर घाट पर दीपों की लौ प्रकाश के अद्भुत प्रभामंडल की सृष्टि करती है। शरद् ऋतु को भगवान की महारासलीला का काल माना गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार शरद् पूर्णिमा की चाँदनी में श्रीकृष्ण का महारास संपन्न हुआ था।
इसी पृष्ठभूमि में शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाली दीपदान की परंपरा आकाशदीपों के माध्यम से काशी में अनूठे सांस्कृतिक वातावरण की द्योतक है। गंगा के किनारे घाटों पर और मंदिरों, भवनों की छतों पर आकाश की ओर उठती दीपों की लौ यानी आकाशदीप के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना तथा मुक्ति-कामना की यह बनारसी पद्धति है।
ये आकाशदीप पूरे कार्तिक मास में बाँस-बल्लियों के सहारे टंगे, टिमटिमाते 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का शाश्वत संदेश देते हैं। इसी क्रम में ये दीप कार्तिक पूर्णिमा के पावन पर्व पर पृथ्वी पर गंगा के तट पर अवतरित होते हैं।
पिछले लगभग दो दशकों में काशी की देव दीपावली का अवसर देश का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धार्मिक अवसर बन गया है। शंकराचार्य की प्रेरणा से प्रारंभ होने वाला यह दीप-महोत्सव पहले केवल पंचगंगा घाट की शोभा था। आगे चलकर काशी के सभी घाटों की नयनाभिराम छवि का अवसर बन गया। काशी में चार 'लाखा' मेलों (जिसमें लाख से अधिक भक्त, दर्शक जुटते हैं) की प्राचीन परंपरा रही है।
नाटी इमली भरत मिलाप, तुलसी घाट की नागनथैया, चेतगंज की नटैया और रथयात्रा मेला इसमें शुमार हैं। लेकिन काशी के घाटों पर संपन्न होने वाली देव दीपावली के मौके पर उपस्थित लाखों की भीड़ ने इसे काशी के पाँचवें 'लाखा' मेले का रूप दे दिया है।
परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम-देव दीपावली- धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर के प्रयत्नों से भी जुड़ा है। अहिल्याबाई होलकर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत 'हजारा दीपस्तंभ' स्थापित किया था, जो इस परंपरा का साक्षी है। आधुनिक देव-दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। पंचगंगा घाट का यह 'हजारा दीपस्तंभ' देव दीपावली के दिन 1001 से अधिक दीपों की लौ से जगमगा उठता है और अभूतपूर्व दृश्य की सृष्टि करता है।
नीचे कल-कल बहती सदानीरा गंगा की लहरें, घाटों की सीढि़यों पर जगमगाते दीपक और गंगा की धारा के समानांतर बहती हुई सी दर्शकों की जन-धारा देव दीपावली की शाम से आधीरात तक अनूठा दृश्य प्रस्तुत करती हैं। इस विस्मयकारी दृश्य की संकल्पना की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डॉ. विभूतिनारायण सिंह की प्रेरणा उल्लेखनीय थी। बाद में स्वामी रामनरेशाचार्य जी, नारायण गुरु किशोरी रमण दुबे 'बाबू महाराज' (गंगोत्री सेवा समिति, दशाश्वमेध घाट), सत्येन्द्र मिश्र 'मुन्नन जी' (गंगा सेवानिधि) तथा कन्हैया त्रिपाठी (गंगा सेवा समिति) ने इस संकल्प को भव्य आयाम प्रदान किया।
विश्वास-आस्था और उत्सव के इस दृश्य को आँखों में भर लेने को उत्सुक लोग देश-विदेश से इस दिन खिंचे चले आते हैं। प्रमुख घाटों पर तिल रखने भर की जगह नहीं होती। नावों के किराए कई सौ गुना ज्यादा होने के बावजूद और घाटों पर उत्सवी माहौल की भीड़ उमड़ने के इस अवसर का तिलिस्मी आकर्षण ग्लोबल होता जा रहा है।
दुनिया के कोने-कोने से पहुँचे देशी-विदेशी पर्यटकों से पूरा शहर, होटल, धर्मशालाएँ सभी भर जाती हैं। युद्ध में शहीद सैनिकों को दीप-श्रद्धांजलि के पर्व के रूप में भी यह पर्व प्रतिष्ठित हो गया है। घाटों के साथ ही नगर के तालाबों, कुंडों, मंदिरों में भी देव दीप पर्व पर काशी के घाटों पर कुछ ऐसा होता है देव दीपावली का नजारा।
-- अमितांशु पाठक