Monday, 3 October 2011

किसानों की आत्महत्या के लिए कम बारिश नहीं, भ्रष्टाचार जिम्मेदार!


नई दिल्ली. मैं अब तक वह रात नहीं भूला हूं जब लुधियाना जिले में हरित क्रांति के दौर में एक किसान ने बाज़ार से खरीदा गया खाद का एक बोरा दिखाया। मैंने किसान से पूछा, आप यह बोरा मुझे क्यों दिखा रहे हैं? जवाब में उसने बोरे को खोलना शुरू किया। बोरे को खोलकर जब किसान ने खाद के दानों को हाथ से मसला तो उसमें से मिट्टी निकल आई। बाहर से बेहद साफ और ब्रैंडेड जूट के बोरा में खाद के नाम पर सिर्फ मिट्टी थी।

कई सालों बाद 1997 में आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले में पहली बार बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की थी। पूरे जिले में तब करीब 37 किसानों ने आत्महत्या की थी। मैंने इस घटना के बाद वारंगल जिले में कई गांवों का दौरा किया। इस दौरान ज़्यादातर लोग बारिश नहीं होने को किसानों की आत्महत्या की वजह बता रहे थे। लेकिन मैंने पाया कि कपास की खेती तबाह होने की वजह मिलावटी कीटनाशक थे, जिसकी वजह से किसानों को ऐसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा। बाद में जांच के नतीजे आए जिसमें पाया गया कि वारंगल जिले में बिकने वाले 80 फीसदी कीटनाशकों या तो पूरी तरह से नकली थे या फिर उनमें मिलावट थी।

आज के दौर में खेती बर्बादी की कगार पर है। कृषि क्षेत्र में बर्बादी की कहानी पूरे देश में एक जैसी है। मरते हुए खेत और तड़पते किसान। लगातार खराब हो रही मिट्टी, नीचे जा रहा भूजल का स्तर और रासायनिक खाद के इस्तेमाल की वजह से खेती अब बहुत बुरे संकट में फंस गई है। इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है। खेती अब घाटे का सौदा होती जा रही है। यही वजह है कि खेती-किसानी से बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हो रहा है।

नीति बनाने वाले, अर्थशास्त्री और अकादमिक जगत के लोग खेती में गिरावट के लिए कई वजहों को जिम्मेदार बताते हैं। लेकिन इन सबके पीछे असली वजह से पर्दा अब तक नहीं हटा है। कृषि को हाल के कुछ सालों में सबसे ज़्यादा नुकसान भ्रष्टाचार की वजह से पहुंचा है। यह एकदम वैसा ही जैसे किसी मरे हुए जानवर के शव के इर्दगिर्द भूत मंडराएं। आप यकीन करें या नहीं लेकिन आज खेती के यही हालात हैं। नकली या घटिया किस्म के बीज, खाद, कीटनाशक और मशीनरी सिर्फ खेती की बर्बादी की कहानी का एक हिस्सा भर हैं। गुणवत्ता पर नियंत्रण जैसी बात भी करना अब बेमानी लगता है। इसके अलावा टेस्टिंग लैब, जिनके बारे में कहा जाता है कि सैंपल को पास करने के लिए उनके रेट तय हैं। इन सबके होते हुए सबसे ज़्यादा घाटा किसान को ही होता है। यही वजह है कि राज्य सरकारों के कृषि विभागों में पौध संरक्षण अधिकारी या गुणवत्ता नियंत्रक के पदों के लिए मारामारी रहती है।

राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर फंड पास किए हुए हैं। जब मैं इन मदों में मिले पैसे का गलत इस्तेमाल देखता हूं तो सोचता हूं कि सीएजी ने खाद्य सुरक्षा के नाम पर संसाधनों के गलत ढंग से इस्तेमाल पर ध्यान क्यों नहीं दिया। ऐसे मामलों में फंड का ज़्यादातर हिस्सा कृषि विभाग के बड़े अफसरों की जेब में जाता है।   ज़्यादातर कृषि अधिकारियों और खाद, बीज, मशीनरी जैसी जरूरी चीजें सप्लाई करने वाले लोगों के बीच में हमेशा बहुत अच्छा रिश्ता रहा है। जिन जगहों पर ईमानदार अधिकारियों ने गड़बड़ी करने वाली फर्मों पर कार्रवाई भी की, उन जगहों पर भी फर्मों के लिए शटर बंद करके नई फर्म बनाकर काम करना मुश्किल नहीं है।

पिछले कई सालों में,  मैंने ऐसे कई लोगों के कारोबार में जबर्दस्त बढ़ोतरी देखी है, जो कभी मिलावट चीजों के व्यापारी माने जाते थे।  रातों रात मुनाफा कमा कर भागने वाली कंपनियां बीज के कारोबार को बहुत पसंद करती है। नकली बीज के कारोबार के लिए कड़े कानूनों के बावजूद बाज़ार में फर्जी बीजों की भरमार है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा था कि बीज का कारोबार करने वाली एक बड़ी कंपनी ने मक्के के दोयम किस्म के हाइब्रिड बीज सप्लाई किए हैं और नुकसान की भरपाई से भी इनकार कर दिया। इसके चलते बिहार सरकार को 60 करोड़ रुपये का घाटा सहना पड़ा।

  
फसल की कटाई के बाद किसानों की परेशानी दूसरी शक्ल लेती है। जिन इलाकों में (पंजाब, हरियाणआ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में) मंडी और फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम वगैरह हैं, वहां किसान आढ़तियों और मंडी एजेंटों की दया पर निर्भर हैं। देश के बाकी हिस्सों में किसानों का शोषण किया जाता है और उन्हें औने पौने दामों में अनाज बेचने के लिए मजबूर किया जाता है।  यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी किसान के लिए मेहनत के बावजूद अपनी फसल का उचित दाम हासिल करना किसी बुरे सपने से कम नहीं है। बैंक, कर्ज बांटने वाले सूदखोर और माइक्रो क्रेडिट एजेंसियां किसानों की लगातार खून चूसने वाली एजेंसियां बन गई हैं।

कई अध्ययनों से साफ है कि किसानों की समस्याओं के लिए बुनियादी वजह बैंकों से मिलने वाले कर्ज का कुप्रबंधन (और भ्रष्टाचार) है। माइक्रो फाइनेंस कंपनियां किसानों से 24 फीसदी से भी ज़्यादा ब्याज वसूलते हैं। यह ब्याज भी हफ्ते-हफ्ते के अंतराल पर चुकाने पड़ते हैं। इसके अलावा निजी सूदखोरों से लिया जाने वाला कर्ज किसानों के लिए अभिशाप साबित हुआ है।   अगर आप सोचते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधान, कृषि विकास और नीति बनाने के कामों में भ्रष्टाचार नहीं है तो आप बड़ी भूल कर रहे हैं।
- देवेंद्र शर्मा
  (लेखक मशहूर कृषि विशेषज्ञ हैं)
curtsy : DAINIK BHASKAR

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