हमारे पूर्वजों द्वारा लम्बे समय से दिवाली के अवसर पर रोशनी हेतु दीपक जलाये जाते रहे हैं। एक समय वह था, जब दीपावली के दिन अमावस की रात्री के अन्धकार को चीरने के लिये लोगों के मन में इतनी श्रृद्धा थी कि अपने हाथों तैयार किये गये शुद्ध घी के दीपक जलाये जाते थे। समय बदला और साथ ही साथ श्रृद्धा घटी या गरीबी बढी कि लोगों ने घी के बजाय तेल के दिये जालाने की परम्परा शुरू कर दी।
समय ने विज्ञान के साथ करवट बदली माटी का दीपक और कुम्हार भाईयों का सदियों पुराना परम्परागत रोजगार एक झटके में छिन गया। दिवाली पर एक-दो सांकेतिक दीपक ही मिट्टी के रह गये और मोमबत्ती जलने लगी। अब तो मोमबत्ती की उमंग एवं चाह भी पिघल चुकी है। विद्युत की तरंगों के साथ दीपावली की रोशनी का उजास और अन्धकार को मिटाने का सपना भी निर्जीव हो गया लगता है।
दीपक जलाने से पूर्व हमारे लिये विचारणीय विषय कुछ तो होना चाहिये। आज के समय में मानवीय अन्धकार के साये के नीचे दबे और सशक्त लोगों के अत्याचार से दमित लोगों के जीवन में उजाला कितनी दूर है? क्या दिवाली की अमावस को ऐसे लोगों के घरों में उजाला होगा? क्या जरूरतमन्दों को न्याय मिलने की आशा की जा सकती है? क्या दवाई के अभाव में लोग मरेंगे नहीं? क्या बिना रिश्वत दिये अदालतों से न्याय मिलेगा? दर्द से कराहती प्रसूता को बिना विलम्ब डॉक्टर एवं नर्सों के द्वारा संभाला जायेगा? यदि यह सब नहीं हो सकता तो दिवाली मनाने या दीपक जलाने का औचित्य क्या है?
हमें उन दिशाओं में भी दृष्टिपात करना होगा, जिधर केवल और अन्धकार है! क्योंकि अव्यवस्था एवं कुछेक दुष्ट, बल्कि महादुष्ट एवं असंवेदनशील लोगों की नाइंसाफी का अन्धकार न केवल लोगों के वर्तमान एवं भविष्य को ही बर्बाद करता रहा है, बल्कि नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद को भी जन्म दे रही है। जिसकी जिनगारी हजारों लोगों के जीवन को लील चुकी है और जिसका भष्टि अमावश की रात्री की भांति केवल अन्धकारमय ही नजर आ रहा है। आज नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद के समक्ष ताकतवर राज्य व्यवस्था भी पंगु नजर आ रही है। आज देश के अनेक प्रान्तों में नक्सलवाद के कहर से कोई नहीं बच पा रहा है!
अन्धकार के विरुद्ध प्रकाश या नाइंसाफी के विरुद्ध इंसाफ के लिये घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले तो मात्र हमें प्रेरणा देने के संकेतभर हैं। सच्चा दीपक है, अपने अन्दर के अन्धकार को मिटाकर उजाला करना! जब तक हमारे अन्दर अज्ञानता या कुछेक लोगों के मोहपाश का अन्धकार छाया रहेगा, हम दूसरों के जीवन में उजाला कैसे बिखेर सकते हैं।
अत: बहुत जरूरी है कि हम अपने-आपको अन्धेरे की खाई से निकालें और उजाले से साक्षात्कार करें। अत: दिवाली के पावन और पवित्र माने जाने वाले त्यौहार पर हमें कम से कम समाज में व्याप्त अन्धकार को मिटाने के लिये नाइंसाफी के विरुद्ध जागरूकता का एक दीपक जलाना होगा, क्योंकि जब जागरूक इंसान करवट बदलता है तो पहा‹डों और समुद्रों से मार्ग बना लेता है। इसलिये इस बात को भी नहीं माना जा सकता कि मानवता के लिये कुछ असम्भव है। सब कुछ सम्भव है। जरूरत है, केवल सही मार्ग की, सही दिशा की और सही नेतृत्व की। आज हमारे देश में सही, सशक्त एवं अनुकरणीय नेतृत्व का सर्वाधिक अभाव है।
किसी भी राष्ट्रीय दल, संगठन या समूह के पास निर्विवाद एवं सर्वस्वीकार्य नेतृत्व नहीं है। सब काम चलाऊ व्यवस्था से संचालित है। पवित्रा के प्रतीक एवं धार्मिक कहे जाने वाले लोगों पर उंगलियाँ उठती रहती हैं। ऐसे में आमजन को अपने बीच से ही मार्ग तलाशना होगा। आमजन ही, आमजन की पीडा को समझकर समाधान की सम्भावनाओं पर विचार कर सकता है। अन्यथा हजारों सालों की भांति और आगे हजारों सालों तक अनेकानेक प्रकार के दीपक जलाते जायें, यह अन्धकार घटने के बजाय बढता ही जायेगा।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-
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