गीता पर उठाये गये हालिया विवाद पर उच्च न्यायालय में कार्यवाही के दौरान की बातों पर गौर करें। याची के वकील को न्यायाधीश ने तीन सप्ताह का समय केवल इस बात के लिए दिया कि वो पहले गीता को पढ़ें और उसमें उल्लिखित किन-किन बातों पर आपत्ति है, उसका विवरण प्रस्तुत करें। पहले ही सुनवाई के दौरान अधिवक्ता ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि उसने ‘गीता’ पढ़ा नहीं है।
और तीन सप्ताह के बाद अगली तारीख पर उसी विद्वान अधिवक्ता ने उसी तरह की ईमानदारी का परिचय देते हुए साफ तौर पर यह स्वीकार किया कि उन्होंने न्यायालय के आदेश पर गीता पढ़ तो जरूर लिया लेकिन समझा बिलकुल नहीं। और अंततः उनकी याचिका खारिज कर दी गयी। बात केवल गीता का ही नहीं है। अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि भारतीय संस्कृति से संबंधित हर फैसले में न्यायालय ने अपने नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हुए ऐसा ही फैसला दिया है। चाहे मामला राम जन्मभूमि का हो, धारा 370 का, सामान नागरिक आचार संहिता, आईएमडीटी एक्ट का विरोध कर बंगलादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने का, अमरनाथ श्राइन बोर्ड, सेतु समुद्रम, गोहत्या निषेध समेत हर विषय को विभिन्न सक्षम न्यायालयों ने हिंदुत्व या यूं कहें कि संघ, विहिप, भाजपा आदि के पक्ष को सही माना है। तो हम अपने न्यायालय या संविधान की सुनें या गीता विरोधी उचक्कों का, ये फैसला हमें करना होगा।
तो मुकदमा में जज ने क्या कहा, गीता में क्या कहा गया है, अभी तक के तमाम देशी-विदेशी विद्वानों ने गीता के बारे में क्या-क्या कहा है। शंकराचार्य, गांधी, विनोवा प्रभृति महामानवों ने किस तरह गीता की बातों का भाष्य करने, उसका सरल अर्थ प्रस्तुत करने, उसी अनुसार अपने जीवन की दिशा का निर्धारण करने में किस तरह अपना जीवन समर्पित कर दिया यह संदर्भ देना भी यहां भैंस के आगे बीन बजाना ही होगा। चूंकि यहां भगवान कृष्ण और गीता के लिए (पेरियार के बहाने) ‘सड़क पर चप्पल मारने’ जैसा शब्द इस्तेमाल किया गया है तो ये भी कहना होगा कि उन चीजों का अध्ययन करने के लिए इन लोगों को कहना या वो सब उद्धृत करना, सूअर को मिठाई खिलाने की कोशिश जैसा ही होगा। खैर…
बस, संदर्भवश केवल इतना उल्लेख करना पर्याप्त होगा कि आखिर गीता का उद्धरण तो साम्यवादियों के लिए भी मुफीद होता अगर उसे इन लोगों ने ब्राह्मणवादी ग्रंथ न घोषित कर दिया होता। आखिर युद्धरत दो गुटों में से एक अर्जुन को धर्मयुद्ध (आप हिंसा कह लीजिए) के लिए प्रेरित करने (उकसाने) के लिए ही तो यह अठारह अध्याय सुनाया गया था। कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ने और कुछ टुकड़े के लिए लोगों को लड़ा कर इस धरती को नर्क बना देने वाले वामपंथियों-जातिवादियों को तो मार्क्स से अच्छा उद्धरण इनमें मिल सकता था। वो तो यहां भी ‘वर्ग संघर्ष’ जैसी स्थितियों को तलाश ही सकते थे। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि गीता में ‘सत्य और असत्य’ के रूप में दो वर्गों का वर्णन किया गया है, न कि संपत्ति (या उनके सुविधा अनुसार जाति, संप्रदाय) आदि किसी अन्य रूप में। बस गीता में अंतर्निहित सत्य की यही ताकत इन्हें दुम दबा कर भागने को विवश करती है। और चूंकि इस सभ्य देश में इनकी जुबान हलक में ही रहने देने की गारंटी है, तो कम से कम हिंदुओं के बारे में कुछ भी कहते रहना इन्हें रास आता है। वरना कुरआन में क्या-क्या कहा गया है, उसके लिए वैसा असभ्य शब्द इस्तेमाल कर के देखें, अपनी औकात का पता चल जाए इन लोगों को तो।
जहां तक जाति आदि का सवाल है तो यह जानना दिलचस्प होगा कि कौरव पक्ष की तरफ ही तो द्रोणाचार्य और कृपाचार्य आदि के रूप में कई ब्राह्मण खड़े थे, जिन्हें मारने के लिए ‘क्षत्रिय’ अर्जुन को ‘यदुवंशी’ कृष्ण प्रेरित कर रहे थे। यह भी साथ ही पढ़ लीजिए कि रामायण में भी ‘ब्राह्मण’ रावण का ही संहार ‘क्षत्रिय’ राम ने किया था। लेकिन कहां इस आधार पर ब्राह्मण और राजपूतों या अन्य जातियों के बीच में किसी तरह का कोई जाति विभाजन हो गया? यह तो इस महान संस्कृति की सफलता ही मानी जानी चाहिए कि आज भी राम और कृष्ण का पूजन इन लोगों द्वारा ब्राह्मणवाद कहा जाता है। चूंकि यह प्रतिक्रया में लिखा गया लेख है, अतः यह भी साथ ही वर्णित करना जरूरी है कि आज भाजपा के मुख्यमंत्रियों में भी सभी गैर ब्राह्मण ही हैं। यह तो भला हो उस राम-जन्मभूमि आंदोलन का, जिसके कारण उचक्कों द्वारा नाहक जाति के आधार पर टुकड़े-टुकड़े में बांट दिये गये समूहों का एक हिंदुत्व की छतरी तले आना संभव हुआ था। नहीं तो आरक्षण के नाम पर तो किलों-कबीलों में देश को बांट देने में कोई कसर नहीं रख छोड़ा था इन समूहों ने। खैर…
सभी विचारों के प्रति सहिष्णु एकमात्र इस हिंदू संस्कृति की खासियत है कि वह देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसी तरह बदलता है जिस तरह भगवान विष्णु विभिन्न युगों में अलग-अलग रूप में अवतार लेते हैं। यह इसी संस्कृति की खासियत है कि वह विदेशी मजहब की तरह कभी चौदहवीं सदी में पैदा हुए विचार को आज भी उसी रूप में मानना गंवारा नहीं करता। अतः अगर मनुस्मृति या किसी और ग्रंथ में वर्णित कोई बात युगानुकूल नहीं लगी तो उसे विनम्रता से बदल देना, कोई गलती हो जाने को मानव स्वाभाव का हिस्सा मान उसके लिए खेद भी प्रकट करते रहना इस संस्कृति में ही तो संभव है। इस सहज-स्वाभाविक विनम्रता को ‘राजनीति’ समझने वाले तत्वों को बेनकाब करने की जरूरत है।
तटस्थ लोग कृपया गौर करें। पौराणिक सनातन मान्यता भी यह कहता है कि विवाह एक संस्कार है और उसका एकमेव ध्येय संतानोत्पति कर वंश बढ़ाना होता है। इस निमित्त वह अगर जरूरी हुआ, तो बहु-विवाह को भी मान्य करता था। लेकिन जब हमने अपना संविधान बनाया तो स्त्री-पुरुषों को समान दर्जा देते हुए एक से अधिक विवाह को प्रतिबंधित किया। तमाम बहुसंख्यक हिंदू समाज ने उसे स्वीकार भी किया। इसी तरह छुआछूत को आज भी हम सब एक स्वर में निंदनीय मानते हैं और जब भी कभी ऐसी व्यवस्था थी या अभी भी है, तो उस पर खुलेआम लानत भेजते हैं। बाल विवाह, सती प्रथा आदि पर भी दृढ़ता से रोक लगा कर विधवा विवाह आदि को लगभग मान्य कर देना आज के युग में संभव हुआ है। इसके उलट मुस्लिमों ने अपनी उन्हीं मध्ययुगीन मान्यताओं पर अड़े रहना मुनासिब समझा और आज भी वहां चार विवाह तक करने की कानूनी मान्यता समेत अन्य तमाम ऐसे मानवता विरोधी, युग विरोधी कानून कायम हैं, जिसके कारण शाहबानो की न्यायालय द्वारा दी गयी रोटी भी छीन ली जाती है।
तो हिंदुत्व जैसे सहिष्णु और युग अनुसार खुद को बदलते रहने वाले जीवन दर्शन को निंदनीय मानने वाले लेकिन कट्टर समूहों के लिए दो शब्द भी निकालने में जुबान खींच लिये जाने का अभिव्यक्ति का खतरा मोल नहीं लेने वालों ऐसे तत्वों का ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं है। चूंकि इस जीवन दर्शन में रुदालियों के लिए भी पर्याप्त जगह है। भैरव के रूप में हम कुत्ते को भी कुछ पत्र-पुष्प समर्पित कर ही देते हैं, तो इन गीता-गंगा-गाय विरोधियों को भी कायम रहने देना होगा। यही वायरस हमें हर वक्त प्रतिरोधी वायरस पैदा करते रहने की ताकत देते हैं। हममें इतना नैतिक साहस कायम है कि हम पूर्वजों की किसी गलत कामों का भी विरोध कर सकें। जाति-संप्रदाय आदि आधारित छुआछूत समेत अन्य तमाम भेद-भाव को छोड़ कर एक नये समरस समाज बनाने हेतु हिंदुत्व का यह सनातन जीवन पद्धति गोरियों, गजनबियों, गीता-गंगा-गाय विरोधियों के बावजूद बदस्तूर कायम रहेगा।
चूंकि इन तमाम मुद्दों को बेजा रूप से राजनीति के चश्मे से देखने की कोशिश की गयी है, तो ये भी कहना होगा कि रुदालियां छाती पीटते रहें भाजपा अभी 116 है, कल 270 होगी। अभी आधे दर्जन से अधिक राज्यों में सत्तासीन है, कल दो दर्जन राज्यों में होगी। आज एकमात्र प्रासंगिक विपक्ष है, कल लाल किले के प्राचीर पर भी होगी। और हर मोहल्ले में तब भी कुछ विदूषक इसी तरह कायम रहेंगे, जैसे अभी हैं। आखिर मनोरंजन भी हर एक फ्रेंड की तरह जरूरी होता है यार। कुछ जोकरों को सुधारने की कोशिश करने के के बजाय उनके हाल पर ही छोड़ देना श्रेयष्कर होता है। बाबा तुलसी ने पहले ही कहा है…
फूलहि-फलहि न बेंत, जदपि सुधा वरसहि जलद
मूरख मनहि न चेत, जौं गुरु मिलहि विरंची सम
मूरख मनहि न चेत, जौं गुरु मिलहि विरंची सम
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(पंकज झा। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में मास्टर डिग्री लेनेवाले पंकज झा वर्तमान में छत्तीसगढ़ भाजपा के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं। इसके साथ ही वे विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं के लिए मुक्त लेखन भी करते हैं। उनसे jay7feb@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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